Ads 468x60px

Labels

Tuesday, February 9, 2021

What is Sanatan Dharam

What is Sanatan Dharam

सनातन धर्म क्या है?

‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘हमेशा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत तक व्याप्त रहा है

, जिस बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है, जैसे सत्य सनातन है, ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है, वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है, जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं, यही सनातन धर्म का सत्य है।

मित्रों, ध्यान से पढ़े, ऎसी प्रस्तुतियां बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं, वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिये सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि? यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है, आप ऐसा भी कह सकते हो कि मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन हैं, एकनिष्ठता, योग, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण मोक्ष का मार्ग है, अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है, यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम हैं जिनका शाश्वत महत्व है, अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था- “असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय” यानी हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।



जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं, असत्य से जीव मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ जाता हैं, उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है, वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते, मृत्यु आये इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है, अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

सत्य सत् और तत् से मिलकर बना है, सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह, दोनों ही सत्य है, “अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि” यानी मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम भी ब्रह्म हो, यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है, ब्रह्म पूर्ण है, यह जगत् भी पूर्ण है, पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है, पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती, वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है, यही सनातन सत्य है।

जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं, वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है, जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी, यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते, प्राण की भी अपनी अवस्थायें हैं, प्राण, अपान, समान और यम, उसी तरह आत्मा की अवस्थायें हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या।

ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं, उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक ‍कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले, यही सनातन धर्म का सत्य है, ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश, आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है, इसीलिये भाई-बहनों, कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्‍या, यही सनातन सत्य है और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।

विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं, विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है, विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था, वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर ‘मोक्ष’ की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था, मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिये ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है, यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है, जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है, जगत भ्रमपूर्ण है, ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है, मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है, इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं, ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुयें हैं, उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है, अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा, इसीलिये सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है, और जो ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं, भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।

वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है, उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा, ईश्वर तो एक ही है यही सनातन सत्य हैं, सत्य को धारण करने के लिये प्रात: योग और प्राणायाम करें तथा दिनभर कर्मयोग करें, वेद-पुराणों को समझे, गौ माता और ब्राह्मण को सम्मान दें, ऋषि परंपराओं को जीवन में अपनायें, सज्जनों, यही सनातनी जीवन हैं।

हरि ओऊम् तत्सत् जय श्री लक्ष्मीनारायण!

Monday, February 8, 2021

सनातन धर्म की कुछ बाते जो कोई नहीं बताएगा :-

सनातन धर्म की कुछ बाते जो कोई नहीं बताएगा :- कृपया अपने बच्चो को जरूर बताये
काष्ठा = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
1 त्रुटि = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
2 त्रुटि = 1 लव ,
1 लव = 1 क्षण
30 क्षण = 1 विपल ,
60 विपल = 1 पल
60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
7 दिवस = 1 सप्ताह
4 सप्ताह = 1 माह ,
2 माह = 1 ऋतू
6 ऋतू = 1 वर्ष ,
100 वर्ष = 1 शताब्दी
10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
432 सहस्राब्दी = 1 युग
2 युग = 1 द्वापर युग ,
3 युग = 1 त्रैता युग ,
4 युग = सतयुग
सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
72 महायुग = मनवन्तर ,
1000 महायुग = 1 कल्प
1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
महालय = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )



दो लिंग : नर और नारी
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)
दो आयन : उत्तरायन और दक्षिणायन



तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, गैस
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति



चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग
चार समय : सुबह,दोपहर, शाम, रात
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन



पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी



छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्



सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची
सात धान्य : गेहूँ, चना, चांवल, जौ मूँग,उड़द, बाजरा



आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व
आठ धातु : सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा



नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि



दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि
दस सती : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती

नोट : कृपया पोस्ट को बच्चो को कण्ठस्थ करा दे इससे घर में भारतीय संस्कृति जीवित रहेगी.

उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हैं ।
यह आपको पसंद आया हो तो अपने बन्धुओं को भी शेयर जरूर कर अनुग्रहित अवश्य करें यह संस्कार का कुछ हिस्सा हैं 🌷 💐